Tuesday 10 June 2014

मेरी दुनिया हुई गुलजार तेरे आने से .....

मेरी दुनिया हुई गुलजार तेरे आने से
इस चमन में आई बहार तेरे आने से
जज़्बों की जंग थी महज ज़िंदगी अब तलक
रूहानी हुआ मेरा रुखसार तेरे आने से ....
मुद्दतों से आस थी मुझे जिस बहार की
वो पल-भर में आ गयी सरकार के आने से
अब नहीं बाकी कोई ख़्वाहिश मेरे दिल में
सारे सपने हुए साकार तेरे आने से
मेरी दुनिया हुई गुलजार तेरे आने से ..... ॥ 

Sunday 8 June 2014

इस जन्म भूमि के रक्षक हैं हम ....

इस धरती पर हमने जन्म लिया
 इस जन्म भूमि के रक्षक हैं हम
कह दो इस अमर धरा पर
बीज विषमता के बोने वालों से
यदि भक्षक हैं वो तो तक्षक हैं हम
किसी आततायी को हम इसमे
पैर न रखने देंगे
ये धरती ममता की वेदी है
इसके सीने में खंजर धसने न देंगे ।

इस धरती पर रहने वाला
हर मनुज हमारा भाई है
ललकारेगा कौन मनुजता को
किसकी शामत आई है ...!
जब तक प्राण हैं तन में तब-तक
बाल न बांका कोई कर सकता
ये हम जन-जन से कह देंगे
और पड़ी जरूरत तो
अपने लहू के हर कतरे से
हम जय भारत माता की लिखेंगे
जय भारत माता की लिखेंगे ... ॥

यह कर्म भूमि है हम रणधीरों की
झुके नहीं जो तोपों के आगे
यह भारत माता जननी है ऐसे वीरों की
इसका मान न जाने पाये
चाहे जान हमारी भले ही जाये
इसकी मर्यादा की खातिर
हम एक तो क्या -
सैकड़ों शीश न्योछावर कर देंगे
और पड़ी जरूरत तो
अपने लहू के हर कतरे से
हम जय भारत माता की लिखेंगे
जय भारत माता की लिखेंगे ... ॥

अंजलि पंडित ।
  


Thursday 5 June 2014

मेरी अभिलाषा

शृंगार  नहीं अंगार लिखूँगी
रग-रग का लहू शोला बन जाए
ऐसी मैं हुंकार भरूँगी
शृंगार  नहीं अंगार लिखूँगी
हे आदिशक्ति ! माँ जगत भवानी
हे रणचंडी ! हे कल्याणी
दो आशीष आज मुझको
हर वहसी पर मैं वार करूंगी
टकराने को आयें मुझसे
एक साथ सहस्त्रों तूफा तो क्या
हर दावानल मैं पार करूंगी
अब शृंगार  नहीं अंगार लिखूँगी
मेरे भारत के माथे पर
जो चीत्कार लिखेगा
भोली मानवता के हिस्से में
करुण गुहार लिखेगा
उस नीच , अधम , अभिमानी के
हिस्से में मैं दुत्कार लिखूँगी
शृंगार  नहीं अंगार लिखूँगी
ममता-समता-निजता-प्रभुता
की रक्षा की खातिर
अब रण- थल में उतरूँगी मैं
परवाह नहीं मेरी अब मुझको
हर अन्यायी से मैं समर करूंगी
इस जीवन रण में -
बुझ जाएगा एक दिन मेरा जीवन  दीप
वह दिन होगा मेरी खातिर परम अनूप
वीर बहूटी सी मस्तक में धारूंगी मैं रोली
तीन रंग की चूनर ओढ़
विदा होगी जग से मेरी डोली
अपने तन-मन पर मैं
इस माटी का शृंगार करूंगी
अपने लहू के हर कतरे से
लिख जाऊँगी मैं जय भारत की
इस माटी के हर रज में रम
अपनी जननी का गुणगान करूंगी
प्राण भले जाएंगे मेरे
पर मैं मरकर भी नहीं मरूँगी ...
हाँ मैं शृंगार  नहीं अंगार लिखूँगी ॥

Sunday 27 April 2014

हमे तो शौक है फकीरी का ..........

हमे तो शौक है फकीरी का
क्योंकि बादशाही की नुमाइश हम देख आए हैं ,
जहां लूटी जाती है सोहबत ज़िंदगी से
वो रहाइस हम देख आए हैं ,
आईने में भी खुद की शक्ल
देखकर करते हैं गीले यार वो
कि हमसे ही तो नूर है जमाने का
गर ऐसी सूरत दिखाता है तो
जरूर कुछ कमी इस आईने में ही है ,
गैरों के हिस्से का निवाला चुराकर
करते हैं दावे दरिया दिली के जो
उन तमंगरों की तंग दिली हम देख आए हैं ।
हमे तो शौक है फकीरी का.......

उन गैरतमंदों की तरह हमे
पल-पल सवरना नहीं आता ,
जिन बस्तियों में मयस्सर नहीं है रोशनी
उनके रोशनदानों की धूप चुराकर
खुद ही निखरना नहीं आता ,
मशहूर तो हो जाते अजी हम भी बहुत
पर क्या करें...........
हमें हर रोज नए चेहरे बदलना नहीं आता ,
लगे हुये हैं जो हर पल नकाबपोशी  में
उन मुखौटों के पीछे के चेहरे हम देख आए हैं ।
जहां लूटी जाती है .............
हमे तो शौक है ...........

उन शीशे के बने महलों से
जहां दफन हैं हजारों दिलों की आहें ,
मुझे मिला ये सिर छुपाने का
ठिकाना बहुत अच्छा है ,
नहीं है दौलत और शौहरत तो न सही
पर ये मेरा दिल तो
सोने की तरह खरा - सच्चा है ,
गैरों की खातिर जान देने के दावे
करते हैं जज्बे यार जो ,
उन रहनुमाओं की दरियादिली हम देख आए हैं ।
जहां लूटी जाती है .......
हमे तो शौक है फकीरी का
क्योंकि बादशाही की नुमाइश हम देख आए हैं ॥

अंजलि पंडित ।