आशा के स्वर्णिम पंख लिए
निज सपनों के संसार में
बढ़ती जा रही थी मैं प्रति क्षण
इस धरा विस्तार में
नन्ही परी थी ...
पर खोलना चाहती थी
अपने साहस की उड़ान से
गगन तोलना चाहती थी
अपनी ही धुन में मतवाला था मन
ख्वाबों की आभा से –
सजे थे नयन...
जीवन के हर दर्द से बेअसर थी
दुख कहते हैं किसको
मुझको खबर नहीं थी
इसी मतवाले पन में
एक दिन मैं चल रही थी
पाँव थे जमीं पर –
निगाहें गगन से मिल रही थीं
ठोकर लगी अचानक मुझे ...
मैं सहम गयी ,
गिर रही थी जमीं पर
गिरते हुये संभल गयी
सामने देखा एक निरीह बालक था
कातर निगाहें आँसू लिए...
कंकाल हड्डियों का
ठंड से कंपकपाता नीला बदन
धूल से सनी देह , सूने नयन
कुछ बोलना तो चाहता था
पर होंठ कांप रहे थे
शायद मैं कुछ बोलुंगी ....
कान ये भांप रहे थे,
फिर धीरे से
बोला –
अब क्या
खाऊँगा मैं....?
पूरे दिन कूड़े
में ढूढा था ...
तब इतना भात
मिला था ....
वो भी गिर
गया ,
कल भी भूखा
सोया था
क्या आज भी
भूखा सो जाऊंगा मैं....?
मैं अवाक थी .....
जैसे मिट्टी की मूरत थी ,
कुछ बोल सकूँ मुझमे ये क्षमता न थी
आंखो में आँसू ....
हृदय में एक पीड़ा उमड़ रही थी
धूल से सने एक-एक चावल को
शांत निगाहों से उसका देखना
याद दिला रहा था मुझे
किसी चीज के लिए
मेरा बेवजह मचलना .....
यूं तो उससे
बड़ी ही थी मैं
पर धैर्य को
तब मैंने पहचाना
सच क्या है
दुनिया का
तब मैंने
जाना......
मन चीख उठा
मेरा –
जाग उठे सोये
जज़्बात
छोड़ दिया
जीना खुशियों के लिए
अब करना है
दीनो का कल्याण
जन-हित में
अर्पण है मेरा-
तन-मन-जीवन
और प्राण ........