Thursday 5 June 2014

मेरी अभिलाषा

शृंगार  नहीं अंगार लिखूँगी
रग-रग का लहू शोला बन जाए
ऐसी मैं हुंकार भरूँगी
शृंगार  नहीं अंगार लिखूँगी
हे आदिशक्ति ! माँ जगत भवानी
हे रणचंडी ! हे कल्याणी
दो आशीष आज मुझको
हर वहसी पर मैं वार करूंगी
टकराने को आयें मुझसे
एक साथ सहस्त्रों तूफा तो क्या
हर दावानल मैं पार करूंगी
अब शृंगार  नहीं अंगार लिखूँगी
मेरे भारत के माथे पर
जो चीत्कार लिखेगा
भोली मानवता के हिस्से में
करुण गुहार लिखेगा
उस नीच , अधम , अभिमानी के
हिस्से में मैं दुत्कार लिखूँगी
शृंगार  नहीं अंगार लिखूँगी
ममता-समता-निजता-प्रभुता
की रक्षा की खातिर
अब रण- थल में उतरूँगी मैं
परवाह नहीं मेरी अब मुझको
हर अन्यायी से मैं समर करूंगी
इस जीवन रण में -
बुझ जाएगा एक दिन मेरा जीवन  दीप
वह दिन होगा मेरी खातिर परम अनूप
वीर बहूटी सी मस्तक में धारूंगी मैं रोली
तीन रंग की चूनर ओढ़
विदा होगी जग से मेरी डोली
अपने तन-मन पर मैं
इस माटी का शृंगार करूंगी
अपने लहू के हर कतरे से
लिख जाऊँगी मैं जय भारत की
इस माटी के हर रज में रम
अपनी जननी का गुणगान करूंगी
प्राण भले जाएंगे मेरे
पर मैं मरकर भी नहीं मरूँगी ...
हाँ मैं शृंगार  नहीं अंगार लिखूँगी ॥

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