गोल-लोल-कपोलन की छबि
निहरत ही हिय हरसत है
या ऋतु बरखा की ऐसी मतवारी
अंग - अंग बिजुरिया तड्पत है
हुलस - हुलस जाए जिया पिया का
जबही साजन सजनी को निरखत है
सोचे हल पल आई मिलन की बेला अब
जाने क्यों वाम अंग फरकत है
हाय निहारू आज पिया को
या मैं लाज का घूँघट काढू
सरक - सरक सर से -
मोरी चुनरिया सरकत है
या जग मुझको कहे बावरी
मैं विरहन हूँ प्रीत की मारी
उलझ उलझ इन बतियन में
नित नयनन से जल बरसत है ...... ॥ अंजलि पंडित ।
निहरत ही हिय हरसत है
या ऋतु बरखा की ऐसी मतवारी
अंग - अंग बिजुरिया तड्पत है
हुलस - हुलस जाए जिया पिया का
जबही साजन सजनी को निरखत है
सोचे हल पल आई मिलन की बेला अब
जाने क्यों वाम अंग फरकत है
हाय निहारू आज पिया को
या मैं लाज का घूँघट काढू
सरक - सरक सर से -
मोरी चुनरिया सरकत है
या जग मुझको कहे बावरी
मैं विरहन हूँ प्रीत की मारी
उलझ उलझ इन बतियन में
नित नयनन से जल बरसत है ...... ॥ अंजलि पंडित ।
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