Wednesday 5 December 2012

बचपन


कितना सुघड़ शलोना था वो बचपन

जब हम कागज की नाव बनाते थे

रंग बिरंगी तितलियों के पीछे

दिन- दिन भर दौड़ लगाते थे

बारिश के मौसम में जब हम

कीचड़ मे सनकर आते थे

माँ से बचने की खातिर

पलंग तले छुप जाते थे ।

कितना सुघड़ शलोना था वो बचपन

जब कच्ची अमरूदों की खातिर

बगीचे मे छुपकर हम ताक लगाते थे

कच्चे-पक्के बेरों के लालच में

कपड़े तक फट जाते थे ।

कितना सुघड़ शलोना था वो बचपन

जब जी करता था हँसते थे

जब जी करता था रो लेते थे

कितना सुघड़ शलोना था वो बचपन

जब हम म के सच्चे होते थे

तब कहाँ मान था मर्यादा का

हम तो अपनी ही धुन में होते थे

कितना सुघड़ शलोना था वो बचपन

जब हम बिना बनावट के

अपनी
खातिर जीते थे ...... ।    

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